Monday, March 6, 2023

BHAI DHARMSINGH GURUDWARA SAIFPUR - HASTINAPUR - 5

BHAI DHARMSINGH GURUDWARA SAIFPUR - HASTINAPUR - 5

इससे पहले का यात्रा वृत्तान्त पढने के लिए क्लिक करे...(HASTINAPUR - PANDAV MANDIR & SHAKTIPEETH - 4)

हस्तिनापुर से थोड़ी सी ही दूर गाँव सैफ् पुर पड़ता है. यह गाँव गुरु गोविन्द सिंह के पांच प्यारो में से एक भाई धर्म सिंह का जन्मस्थान हैं. गाँव थोडा सा अन्दर की और पड़ता हैं. गाँव तक सड़क बनी हुई हैं. गाँव के बिलकुल अन्दर जाकर के गुरुद्वारा पड़ता हैं.


भाई धरम सिंह गुरूद्वारा, सैफपुर में स्थित है जो हस्तिनापुर से 2.5 किमी. की दूरी पर पड़ता है। इसे भाई धरम सिंह की याद में बनवाया गया था, जो सिक्‍खों में पांच श्रद्धेय गुरूओं या पंज प्‍यारे में से एक थे। गुरू ने अपने शिष्‍यों में से उन पांच लोगों का नाम पूछा जो उनके कारण अपना आत्‍म - बलिदान करने को तैयार हो जाएं। इन पांच लोगों को ही पहले समूह में सिक्‍ख के वफादारों के रूप में जाना जाता है। इन्‍ही पांच स्‍वंयसेवकों में से एक धरमसिंह भी थे। भाई धरम सिंह मूलत: जट समुदाय के थे। उनका नाम धरम दास था। वह भाई संतराम और माई साबो के पुत्र थे, जिनका जन्‍म सैफपुर - करमचंद, हस्तिनापुर में 1666 में हुआ था। यह संत बेहद धार्मिक व्‍यक्ति थे। उन्‍होने सिक्‍ख धर्म को उस समय से पेश किया जब वह मात्र 13 वर्ष के थे। उन्‍होने अपने जीवन का अधिकाश: भाग ज्ञान प्राप्‍त करने की खोज में लगा दिया। 42 साल की उम्र में 1708 में उनका देहावसान गुरूद्वारा नानदेव साहिब में हो गया था। भाई धरम सिंह गुरूद्वारा को सिक्‍ख समुदाय में सबसे पवित्र केंद्रों में से एक माना जाता है।
गुरुद्वारे का मुख्य द्वार 

भाई धर्म सिंह के बारे में बताता हुआ पट 

भाई धर्मसिंह गुरुद्वारा 

गुरुद्वारे के अन्दर 

गुरुद्वारे में थोडा समय बिताने के बाद हम लोग अपने मुज़फ्फरनगर की और निकल पड़े. आसमान में बादल छाये हुए थे. कभी भी बारिश हो सकती थी यह यात्रा वृत्तान्त यंही समाप्त होता हैं. सब भाइयो और बहनों को राम राम, वन्देमातरम 




HASTINAPUR - PANDAVESHWAR MANDIR & SHAKTIPEETH - 4

HASTINAPUR - PANDAV MANDIR & SHAKTIPEETH - 4

इससे पहले का यात्रा वृत्तान्त पढने के लिए क्लिक करे...(HASTINAPUR - KAILASH PARWAT & ASHTAPAD MANDIR - 3)

कैलाश पर्वत मंदिर से निकलकर हम लोग पांडव कालीन मंदिर समूहों की और आ गए. पुरातन मंदिर बने हुए हैं. दर्शन करके मन को शान्ति मिलती हैं 
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हस्तिनापुर का अर्थ होता है हाथियों का शहर, जो महाभारत काल के दौरान कौरवों की राजधानी हुआ करती थी। हालांकि, महाभारत का युद्ध कुरूक्षेत्र में हुआ था लेकिन इस लड़ाई के बीज हस्तिनापुर में ही बोए गए थे। महाभारत के युद्ध के बाद, हस्तिनापुर पर पांडवों द्वारा शासन किया गया था।

कैलाश पर्बत व अष्टापद मंदिर से निकलने के बाद हम लोग पांडव कालेन मंदिर व स्मारक देखने के लिए आगे बढे..सबसे पहले हम लोग थोड़ी ही दूर पांडवएश्वर मंदिर की और गए. यह एक पांडव कालीन व पांडवो के द्वारा स्थापित मंदिर हैं. 

 हस्तिनापुर के एक पुराने शहर में स्थित खंडहर में, पुराना पांडेश्‍वर मंदिर बना हुआ है जो भगवान शिव को समर्पित है। किंवदंतियों के अनुसार, मंदिर के गर्भगृह में रखी शिवलिंग दानवीर कर्ण ने दान की थी, जो पांडवों के बड़े भाई थे। दानवीर कर्ण को अपने समय का सबसे बड़ा परोपकारी माना जाता था। कर्ण, महाभारत के महान नायकों में से थे, जो कौरवों के पक्ष से लड़े थे। यह मंदिर, एक छोटी पहाड़ी के शीर्ष पर बंगाली समुदाय द्वारा निर्मित मां काली की मूर्ति के नीचे स्थित है। यहां से हस्तिनापुर और उसके आसपास के क्षेत्रों का, शहर का याानदार दृश्‍य देखने को मिलता है। हस्तिनापुर के इस शिव मंदिर में भोलेनाथ पूरी करते हैं हर मन्नत, युधिष्ठिर ने भी मंगी थी मुराद

मंदिर का मुख्य द्वार 

मंदिर में होती है हर मनोकामना पूरी

हस्तिनापुर सुंदर स्थानों में शामिल है, यहां वन जंगल और झीलें लोगों के आकर्षण का केंद्र हैं। यहां हर साल लाखों श्रृद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। मंदिर परिसर स्थित प्राचीन विशाल वट वृक्ष है। इस वृक्ष के नीचे भी श्रद्धालु दीपक जलाकर पूजा-अर्चना करते हैं। यहीं पर प्राचीन शीतल जल का कुआं स्थित है। इसका जल श्रद्धालु अपने साथ ले जाते हैं। इस जल के घर में छिड़कने से शांति मिलती है। पांडवेश्वर मंदिर में प्रतिदिन श्रद्धालु पूजा-अर्चना कर मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। किवदंती है कि महाभारतकाल में पांडु पुत्र युधिष्ठिर ने धर्मयुद्ध से पूर्व यहां शिवलिंग की स्थापना कर बाबा भोलेनाथ से युद्ध में विजयी होने की मन्नत मांगी थी। यही नहीं मंदिर के समीप गंगा की धारा बहती थी। द्रौपदी प्रतिदिन इस मंदिर में पूजा-अर्चना करती थीं। मंदिर परिसर के बीच में शिवलिंग स्थित है।

महाभारतकालीन में हुआ था मंदिर का जीर्णोद्धार

महाभारतकालीन इस मंदिर का जीर्णोद्धार बहसूमा किला परीक्षितगढ़ के राजा नैन सिंह ने 1798 में कराया था। मंदिर में लगी पांच पांडवों की मूर्ति महाभारतकालीन है। इसका अंदाजा उनकी कलाकृति से लगता है। यहां स्थित शिवलिंग प्राकृतिक है। यह शिवलिंग जलाभिषेक के चलते आधा रह गया है।

मंदिर का बाहरी क्षेत्र व पार्किंग 

जयंती माता शक्ति पीठ का टिल्ला 

रोहित मंदिर के बाहर 

पवित्र शिवलिंगम 

पुजारी जी 

पांडवो की गुफा 





पांडव कालीन पुरातन वट वृक्ष 

मंदिर के बाहर  पुरातत्व विभाग द्वारा लगाया हुआ पट 

उत्तरप्रदेश पर्यटन विभाग का पट 

हस्तिनापुर में महाभारतकालीन मंदिरों में जयंती माता शक्तिपीठ मंदिर भी स्वयं में अद्भुत है। मंदिर में पांडवों की कुलदेवी मां जयंती पिंडी रूप में विराजमान हैं। मां की मूर्ति का प्रतिदिन होता श्रृंगार श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करने पर मजबूर करता है। प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण मंदिर का वातावरण भी श्रद्धालुओं को खूब भाता है।

महादेव मंदिर से हम लोग पास ही टिल्ले पर स्थित माता के मंदिर में पहुंचे. वंहा पर माता के दर्शन किये.
 मुख्य मार्ग से पांडव टीले के पास से गुजर रहे रास्ते से होते हुए जयंती माता शक्तिपीठ मंदिर के पास पहुंच सकते हैं। यहां से आपको एक लोहे की सीढ़ियां दिखाई देंगीं, जहां से चढ़कर जयंती माता के दर्शन करने पहुंचा जा सकता। विशाल बरगद की छाया संपूर्ण मंदिर परिसर को अपने आगोश में समेटे हुए है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में पहुंचने पर मां काली के स्वरूप के दर्शन होते हैं। साथ ही ¨पिंडी  रूप में विराजमान मां के दर्शन भी होंगे।

माता के मंदिर का पट 

गंगा के वेग से क्षतिग्रस्त हो गया था मंदिर

बताया गया कि पौराणिक समय में जब गंगा नदी ने अपना रौद्र रूप दिखाते हुए हस्तिनापुर में तबाही की थी, उस समय हस्तिनापुर का साम्राज्य नष्ट हो गया था। तभी से महाभारत के महल, मंदिर, मठ इत्यादि जमीन में दबे हैं। इसके बाद माता के स्वरूप को पिंडी रूप में पुर्नस्थापित किया गया।



माता के मंदिर का मुख्य द्वार 

माता के दिव्य दर्शन 

जयंती माता शक्तिपीठ मंदिर परिसर का दृश्य प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। पांडव टीले के ऊपर जंगल के बीच से संकरी पगडंडी से होते हुए भी मंदिर तक पहुंच सकते है। यह मार्ग आपको किसी पर्वत की चढ़ाई सा अनुभव करा देगा। मंदिर परिसर में दो प्राचीन मठ विराजित हैं। इसके अलावा भगवान शिव की विशाल प्रतिमा, शनि महाराज के भी दर्शन कर सकते हैं।

जयंती माता ने पांडवों को दिए थे अस्त्र-शस्त्र

बताते हैं कि जयंती माता पांडवों की कुलदेवी थीं और भगवान कृष्ण के कहने पर पांडवों ने जयंती माता की स्तुति की थी। मां जयंती ने पांडवों की आराधना से प्रसन्न होकर इसी स्थान पर उन्हें दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान किए थे। जिसका प्रयोग उन्होंने महाभारत युद्ध में किया और वे विजयी हुए। मंदिर के पुजारी पंडित मनीष शुक्ला ने मंदिर की महत्ता बताते हुए कहा कि जयंती माता मंदिर बहुत प्राचीन और शक्तिपीठ है। मां सती के शरीर के अंग व आभूषण जिन-जिन स्थानों पर गिरे वहीं शक्तिपीठ कहलाए। बताते हैं कि हस्तिनापुर के इस स्थान पर माता सती का जंघा वाला भाग गिरा और जयंती माता शक्तिपीठ के रूप में विख्यात हुईं।

जयंती माता 

मंदिर के अन्दर का दृश्य 

गुरु गोरखनाथ तपस्या स्थल 

मंदिर का इतिहास बताता हुआ पट 

एक और शिला पट 

मंदिर का प्रांगन 

मंदिर का प्रांगन 

मंदिर का मार्ग 

मंदिर को जाती हुई सीढ़िया

माता के मंदिर से थोड़ी दूर ही कर्णेश्वर महादेव मंदिर है.  यह भी पुराना बना हुआ हैं  हस्तिनापुर महाभारत कालीन ऐतिहासिक नगरी में मौजूद कर्ण मंदिर द्वापर युग का साक्षी है। यह वही स्थान है, जहां इंद्र ने कर्ण को कवच और कुंडल दान किए थे। कर्ण जिस देवी की तपस्या कर प्रतिदिन सवा मन सोना प्राप्त करते और दान करते थे, आज उसी कामाख्या देवी का मंदिर जीर्ण शीर्ण अवस्था में है। इसकी आज तक पर्यटन विभाग और सरकार को कोई चिंता नहीं है।

कर्णेश्वर महादेव मंदिर 

दानवीर कर्ण इसी स्थान पर कामाख्या देवी की पूजा करते थे। अपने शरीर की आहुति देकर मां कामाख्या देवी से हर रोज सवा मन सोना प्राप्त करते थे। गंगा में स्नान करने के बाद सोना दान करते थे। कर्ण मंदिर में आज भी प्रतिदिन पर्यटक देश के कोने-कोने से आते हैं।

शिवलिंगम, कर्णेश्वर महादेव मंदिर 

पुराणों में भी अंकित है मंदिर का महत्व

प्राचीन कर्ण मंदिर का पुराणों में भी वर्णन है। इसके बाद भी ऐतिहासिक स्थान आज भी कई मूलभूत सुविधाओं से अछूता है। इस मंदिर की तरह कस्बे में अन्य कई महाभारत कालीन प्राचीन मंदिर और अवशेष उसी अवस्था में खड़े हुए हैं। जिन्हें संवारने के लिए कोई मुहिम नहीं चलाई गई। इस कारण अस्तित्व समाप्त हो रहा है।

माता आदि शक्ति, कर्णेश्वर मंदिर 

हनुमान जी कर्णेश्वर मंदिर 

श्री कर्णेश्वर मंदिर 

पांडव कालीन मंदिर देखने के बाद इस बात का बहुत दुःख होता हैं की इन मंदिरों के बारे में अधिकतर लोगो को मालुम ही नहीं हैं, यंही पर भगवान् श्री कृष्ण ने सबसे पहले अपना विराट रूप दिखाया था. लोग हस्तिनापुर आते हैं और इनके दर्शनो के बिना चले जाते हैं. इन मंदिरों की ठीक से व्यवस्था, रखरखाव भी नहीं हैं. जबकि यंहा पर जैन वैश्य समुदाय ने एक से एक शानदार मंदिर व धर्मशालाए बनवाई हुई हैं. जिनका रख रखाव भी बहुत अच्छा हैं.  हमारे इन सनातनी पांडव कालीन मंदिरों की दुर्दशा हैं. भारत सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार, विश्व हिन्दू परिषद्, इस्कॉन, हिन्दू संस्थाओं को यंहा के बारे में कुछ करना चाहिए. जैसे की कुरुक्षेत्र में विकास हैं, यंहा पर उसका एक प्रतिशत भी नहीं हैं. मेरठ, मुज़फ्फरनगर, बिजनोर  से ठीक से बस सेवा भी नहीं हैं. ना ही कोई रेल नेटवर्क हैं.  खैर हम लोग क्या कर सकते है पर जो हिन्दुओ के ठेकेदार बनते हैं वो तो कुछ कर सकते हैं.

कर्णेश्वर मंदिर से हम लोग हस्तिनापुर से पंच् प्यारे में से एक भाई धर्मसिंह के गाँव सैफ पुर की और  चल पड़े.  

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Sunday, July 31, 2022

HASTINAPUR - KAILASH PARWAT & ASHTAPAD MANDIR - 3

HASTINAPUR - KAILASH PARWAT & ASHTAPAD MANDIR - 3

इससे पहले का यात्रा वृत्तान्त पढने के लिए क्लिक करे .....(HASTINAPUR - A HOLY TRAVELL - 2 -JAMBUDEEP)

जम्बूदीप मंदिर समूह से हम लोग एक चाय की दूकान पर  पहुंचे. और साथ लाये हुए आलू पूरी, अचार और घर के खाने का स्वाद  चाय के साथ लिया. भोजन करने के बाद सामने स्थित कैलाश पर्वत मंदिर समूह के और पहुँच गए. ये मंदिर समूह भी विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ हैं. 

कैलाश पर्वत मंदिर समूह के बाहर  की और मार्ग 

एक धर्मशाला के बाहर का दृश्य 

पुरे देश के वैश्य जैन समाज के सेठो ने यंहा पर एक से बढ़कर धर्मशालाए बनवाई हुई हैं. 

कैलाश पर्वत जैन मंदिर परिचय

प्रथम तीर्थंकर युग प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव की निर्वाण स्थली कैलाश पर्वत रचना का पूज्य आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज (हस्तिनापुर वाले) की प्रेरणा व् मुनि श्री आदि सागर जी महाराज , आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की परम शिष्या दृढमाता जी के आशीर्वाद से 3 मार्च 1996 को शिलान्यास संपन्न हुआ | सौभाग्य की बात है कि इसी धरा पर श्री आदिनाथ भगवान ने राजा सोमप्रभ श्रेयांश के द्वारा इक्षुरस का आहार प्राप्त कर अक्षय तृतीया जैसे पावन पर्व का सूत्रपात किया और इस धरा को पवित्र किया | तेईस तीर्थंकरो की निर्वाण स्थली के दर्शन हमारे समाज को सुलभता से प्राप्त हो जाते है परन्तु युग पर्वतक प्रथम तीर्थंकर की मोक्षस्थली की रज मस्तक पर लगाने को लालायित रहते है |

मंदिर समूह का मुख्य द्वार 

इस कमी की पूर्ति हेतु यहाँ पर कैलाश पर्वत का निर्माण किया गया | जो विश्व की एकमात्र रचना 131 फ़ीट ऊँची अपने आप में अनूठी व् आकर्षण का केंद्र है | इसमें भूतकाल , वर्तमानकाल व् भविष्य काल की तीन चौबीसी , 72 मंदिर पर 51 फ़ीट वाले शिखर युक्त मंदिर में 111/4 फ़ीट पदमासन वाली भगवान आदिनाथ की मनोग प्रतिमा विराजमान है | अन्य मंदिर 21 - 21 फ़ीट वाले शिखरबंद बनाये गए है , जिनमे सवा दो फ़ीट की पदमासन मनोगः प्रतिमाये विराजमान की गयी है |


कैलाश पर्वत मंदिर का अन्दर वाला प्रवेश द्वार 

कैलाश पर्वत के ऊपर से  दृश्य 

कैलाश पर्वत हिमालय पर्वतमालाओं में स्थित है जो जैन धर्म के लिए एक पवित्र स्‍थल है। ऐसा माना जाता है कि इसी जगह जैन धर्म के पहले तीर्थांकर भगवान ऋषभदेव ने मोक्ष की प्राप्ति की थी। वास्‍तव में, कैलाश पर्वत तक पहुचंना सभी साधारण श्रद्धालुओं के लिए संभव नहीं है, इसलिए जैन समुदाय ने हस्तिनापुर में एक आसान विकल्‍प तैयार कर लिया। यहां भगवान ऋषभदेव के जन्‍मस्‍थान पर इसकी प्रतिकृति का निर्माण किया गया ताकि सभी श्रद्धालु यहां तक दर्शन के लिए आराम से पहुंच सके। इसके अलावा, दूसरा पहलू यह भी है कि इस मंदिर का निर्माण अक्षय तृतीया के दिन करवाया गया था, इसी दिन भगवान श्री आदिनाथ ने अपने 13 महीने पुराने उपवास को गन्‍ने का जूस पीकर तोड़ा था। 131 फीट की ऊंचाई वाले पर्वत पर 11.25 फीट ऊंची भगवान ऋषभदेव की पद्मासन लगाए हुए मूर्ति स्‍थापित है। हस्तिनापुर में कैलाश पर्वत तीन चरणों में बना हुआ है। इसमें गोलाकर सीढियों पर 72 मंदिर स्थित है जो तीर्थंकरों के भूत, वर्तमान और भविष्‍य को दर्शाते है। प्रत्‍येक गोलाकर सीढी, एक विशेष काल के 24 तीर्थांकरों को दर्शाती है। इमारत की अनूठी विशेषता इसकी नजा़कत, उत्‍कीर्ण फाटक, सजी हुई छत, खंभे और पैनल है।

मंदिर के लिए ऊपर जाना होता हैं 

















मंदिर में स्थापित स्तम्भ 


मंदिर के शिखर की और 


रोहित 



और ये मै 

एक और मंदिर 

मंदिर सामने से 




कैलाश पर्वत मंदिर दूर से 

ऐरावत हाथी रथ 

यंहा से हम लोग बराबर में स्थित श्री शांतिनाथ जैन मंदिर में आ गए.

श्री शांतिनाथ श्वेताम्बर मंदिर 

मुख्य द्वार 

श्री श्‍वेताम्‍बर जैन मंदिर में कई प्राचीन मूर्तियां रखी हुई है। यह स्‍थल तक तक उपेक्षित था, जब तक यहां विजय वल्‍ल्‍भ सूरी जी के आचार्य विजय समुद्र सूरी जी ने दौरा नहीं किया, उन्‍होने 1960 में इस स्‍थल का दौरा किया था। महान आचार्य ने मंदिर में पुनर्निर्माण करवाते हुए एक शिखर को बनवाया। उन्‍होने श्री शांतिनाथ भगवान की मूर्ति को स्‍थापित किया, जिसे श्री कुंथुनाथ भगवान के द्वारा लाया गया था और मंदिर में श्री अरनाथ भगवान की मूर्ति को अलग से रखा गया है। इस मंदिर के महत्‍व की कल्‍पना इस बात से की जा सकती है कि इस मंदिर में प्रथम जैन तीर्थंकर, भगवान श्री आदिनाथ ने श्रेयांस कुमार के हाथों से गन्‍ने का रस लेकर अपना 13 माह पुराना उपवास तोड़ा था। इस मंदिर में एक भव्‍य पाराना या उपवास तोडने वाला हॉल है, जो मंदिर में सामने ही स्थित है। इस मंदिर में साल की अक्षय तृतीया को कई श्रद्धालु अपना उपवास तोड़ते है जो वह काफी लम्‍बे समय से रखते है। साल भर के उपवास को बरसी तप कहा जाता है।








शांतिनाथ मंदिर से थोड़ी दूर ही अष्टपद मंदिर हैं. इसके द्वार बंद थे इसके दर्शन हमने बाहर से ही किये. 

अष्टापद मंदिर 

अष्‍टपद अर्थात् आठ कदम। जैन शास्‍त्रों के अनुसार, बर्फ से ढकी हिमालय पर्वतमालाओं में कहीं न कहीं एक अष्‍टपद धार्मिक केंद्र अवश्‍य है। यह कैलाश पर्वत में बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान उत्‍तर की दिशा में 168 मील की दूरी पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि सुंदर मानसरोवर झील से अष्‍टपद की दूरी सात मील दूर है। हालांकि अब यह जगह चीन के कब्‍जे में आती है। किंवदंतियों के अनुसार, भगवान ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थांकर ने इसी जगह आकर मोक्ष की प्राप्ति की थी। महाराजा भरत चक्रवर्ती के बेटे ने अष्‍टपद पर्वत पर एक महल का निर्माण करवाया था और इसे हीरों से सजाया था। यह भी माना जाता है कि जो लोग अष्‍टपद की यात्रा कर लेते है उन्‍हे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी मान्‍यता के साथ, जैन समुदाय हस्तिनापुर के अष्‍टपद की प्रतिकृति में आकर दर्शन लेते है जो वास्‍तव में पहले तीर्थांकर का जन्‍मस्‍थान है। इस शानदार तीर्थस्‍थल को दो दशक में 25 करोड़ की लागत से पूरा किया गया। 151 फीट ऊंचाई और 108 मीटर के व्‍यास महलनुमा संरचना में प्रवेश करने के लिए चार बड़े फाटक है। यहां आठ पद या कदम बने है जिनमें से प्रत्‍येक की ऊंचाई 108 फीट है।


सुन्दर अष्टपद मंदिर 

अष्‍टपद अर्थात् आठ कदम। जैन शास्‍त्रों के अनुसार, बर्फ से ढकी हिमालय पर्वतमालाओं में कहीं न कहीं एक अष्‍टपद धार्मिक केंद्र अवश्‍य है। यह कैलाश पर्वत में बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान उत्‍तर की दिशा में 168 मील की दूरी पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि सुंदर मानसरोवर झील से अष्‍टपद की दूरी सात मील दूर है। हालांकि अब यह जगह चीन के कब्‍जे में आती है। किंवदंतियों के अनुसार, भगवान ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थांकर ने इसी जगह आकर मोक्ष की प्राप्ति की थी। महाराजा भरत चक्रवर्ती के बेटे ने अष्‍टपद पर्वत पर एक महल का निर्माण करवाया था और इसे हीरों से सजाया था। यह भी माना जाता है कि जो लोग अष्‍टपद की यात्रा कर लेते है उन्‍हे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी मान्‍यता के साथ, जैन समुदाय हस्तिनापुर के अष्‍टपद की प्रतिकृति में आकर दर्शन लेते है जो वास्‍तव में पहले तीर्थांकर का जन्‍मस्‍थान है। इस शानदार तीर्थस्‍थल को दो दशक में 25 करोड़ की लागत से पूरा किया गया। 151 फीट ऊंचाई और 108 मीटर के व्‍यास महलनुमा संरचना में प्रवेश करने के लिए चार बड़े फाटक है। यहां आठ पद या कदम बने है जिनमें से प्रत्‍येक की ऊंचाई 108 फीट है।




अष्टपद मंदिर द्वार 

यंहा से निकलकर हम लोग और दुसरे मंदिरों की और चल पड़े 


एक निर्माणाधीन मंदिर 


एक और पुराना मंदिर 

इन मंदिरों के दर्शन के बाद हम लोग पांडव कालीन मंदिरों की और चल पड़े. 

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