Saturday, June 10, 2023

UJJAIN HOLY TRAVELL- 3 - VIKRAMADITYA TILLA

UJJAIN HOLY TRAVELL- 3 - VIKRAMADITYA TILLA


इससे पहले का यात्रा वृत्तान्त पढने के लिए क्लिक करे...(UJJAIN A HOLY TRAVELL - 2 - MAHAKAL DARSHAN

24/10/21

बाबा महाकाल के दर्शन करके मै रूद्र  सागर में स्थित विक्रमादित्य टिल्ले पर आ गया. यह टिल्ला मेरे रुकने के स्थान बालाजी परिसर और महाकाल मंदिर के बीच में पडता हैं. पांच मिनट का पैदल रास्ता हैं. मुख्य  मार्ग से  टिल्ले पर जाने के लिए एक सेतु बना हुआ हैं. उस पर थोड़ा सा चलने के बाद रुद्रसागर स्थित ये टिल्ला हैं. इसमें सम्राट विक्रामादित्य की एक विशाल पश्चिम मुखी प्रतिमा स्थापित हैं. और बीचो बीच एक मंदिर हैं. जिसमे विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमाये स्थापित हैं. विक्रम टिल्ले पर महाराज विक्रम के नवरत्नों पर उनके सिंघासन बत्तीसी में स्थापित ३२ कठपुतलियो की प्रतिमाये स्थापित हैं. 

SAMRAT VIKRAMADITYA - सम्राट विक्रमादित्य 

भारतीय व हिन्दू इतिहास में तीन विक्रमादित्य सम्राट हुए हैं. प्रथम उज्जैय्नी के सम्राट, द्वितीय पाटलिपुत्र के गुप्त वैश्य वंशी सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य, तृतीय दिल्ली के  वैश्य वंशी सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य. यंहा पर में प्रथम सम्राट विक्रम के बारे में बता रहा हूँ.

"विक्रमादित्य" (102 ईसा पूर्व - 19 ईस्वी), जिसे विक्रमसेन के नाम से जाना जाता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप के सम्राट थे। उनके साम्राज्य में भारतीय उपमहाद्वीप का एक बड़ा हिस्सा शामिल था, जो पश्चिम में वर्तमान सऊदी अरब से लेकर पूर्व में वर्तमान चीन तक फैला हुआ था, जिसकी राजधानी उज्जैन थी।



विक्रमादित्य का सिक्का

विक्रमादित्य ने विक्रम संवत की शुरुआत 57 ई.पू. में शकों को हराने के बाद की, और कालिदास द्वारा लिखित ज्योतिर्विदभरणम के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने रोमन राजा जूलियस सीजर को भी हराया था।

उन्होंने पूरे एशिया पर अपना शासन व्यवस्थित किया था। अरब पर इनके शासन का प्रमाण सायार-उल-ओकुल ग्रंथ के पृष्ठ संख्या 315 से मिलता है, इस ग्रंथ की रचना अरबी कवि जरहाम कितनोई ने की। यह ग्रंथ वर्तमान में इस्तांबुल शहर के प्रसिद्ध पुस्तकालय मकतब-ए-सुल्तानिया में स्थित है, जिसे अब गलाटसराय लिसेसी स्कूल का नाम दिया गया है। इनके पिता का नाम गंधर्वसेन था. सम्राट विक्रमादित्य ने शको को पराजित किया था। उनके पराक्रम को देखकर ही उन्हें महान सम्राट कहा गया और उनके नाम की उपाधि कुल १४ भारतीय राजाओं को दी गई। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। "सम्राट विक्रमादित्य ने लगभग सम्पूर्ण एशिया को जीत लिया था।" उस समय उनका साम्राज्य आधुनिक चीन, मध्य एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ भाग तक फैला हुआ था जो कि अभी तक के इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य है।

दुसरी शताबदी ई.पू. मे मालवा पे राजा गंधर्वसेन (132 ई.पू. - 102 ई.पू.) का शासन था| उनके सेनापति का नाम वीरभद्र और मंत्री का नाम विष्णुदत्त था। गंधर्वसेन की पत्नी का नाम वीरमती था। उनके दो पुत्र हुए भर्तहरी और विक्रमसेन। उस वक्त मालवा एक स्वतंत्र राज्य था। 102 ई.पू. मे शकों के राजा नहपान ने मालवा पर हमला कर वहाँ कब्जा कर लिया और युद्ध के दौरान विक्रमसेन के पिता राजा गंधर्वसेन की मृत्यु हो गयी। लेकिन मंत्री विष्णुदत्त, रानी वीरवती और दोनो राजकुमार वहाँ से बच कर निकल गए। शकों के मलावा मे बीस वर्ष राज करने के बाद विक्रमसेन ने 82 ई.पू. मे मलावा पर हमला कर दिया, और वहाँ के राजा को हरा कर राजा बन गए। फिर विक्रमसेन ने धीरे धीरे शकों को भारत से खदेडना शुरू किया। उन्होंने भारत के कई राज्यों से सहायता मांगी और एक बड़ी सेना का निर्माण किया। अंतः 57 ई.पू. मे विक्रमसेन ने शकों को हरा कर विक्रम संवत की स्थापना की। विक्रमसेन ने भारत को अखंड भारत बनाया, अखंड भारत के राजा होनेे की वजह से उनका नाम विक्रमसेन से विक्रमादित्य रख दिया गया। उन्होंने सभी राज्यों को एक साथ मिला कर अखंड भारत का निर्माण किया। लेकिन कलिंग ने विक्रमादित्य के अधीन होने से मना कर दिया, जिसकी वजह से बहुत बड़ा युद्ध हो गया जिसमे विक्रमादित्य की जीत हुई और उन्होंने कलिंग की राजकुमारी "कलिंगसेना" से विवाह कर लिया। विक्रमादित्य के दरबार मे नौ रत्न भी थे, कहा जाता है कि नौ रत्नों की परम्परा सम्राट विक्रमादित्य से ही शुरू हुई थी।

कालिदास ने सम्राट विक्रमादित्य का उल्लेख "ज्योतिर्विदभरणम" की एक पुस्तक मे की है| इस पुस्तक को उन्होंने 33 ई.पू. मे लिखा था|

कालिदास महाराज विक्रमादित्य के दरबार में कवियों और पंडितों की सूची देते हैं 1. संकु, 2. वररुचि, 3. मणि, 4. अंगुदत्त, 5. जिष्णु, 6. त्रिलोचन, 7. हरि (हरिस्वामी, शुक्ल यजुर्वेद के टीकाकार और दान और धर्म के विभागों के प्रमुख (दानाध्याक्ष और धर्माध्यक्ष), 8. घटकरपारा, 9. अमरसिंह, 10. सत्याचार्य, 11. वराहमिहिर, 12. श्रुतसेन, 13. बादरायण, 14. मनित्थ, 15. कुमार सिम्हा और ज्योतिषी, 16. स्वयं (कालिदास), और अन्य (श्लोक 22-8,9)

(22-11) में कालिदास ने कहा है कि 800 जागीरदार राजा, 1 करोड़ अच्छे सैनिक, 16 महान विद्वान, 16 कुशल चिकित्सक, 16 भट्ट और वैदिक विद्या के 16 विद्वान थे।

(22-12) में उनकी सेना लगातार 18 छोटी ज्योतिष योजनाओं (प्रत्येक लगभग 5 मील) में फैली हुई थी और इसमें निम्नलिखित शामिल थे:

i) 3 करोड़ सैनिक, ii) 10 करोड़ वाहन, iii) 24,300 हाथी और iv) 400,000 जहाज |

कालिदास दोहराते हैं कि इस संबंध में महाराजा विक्रमादित्य की तुलना किसी अन्य सम्राट से नहीं की जा सकती।

(22-13) में – कहा गया है कि विक्रम ने असंख्य शकों का विनाश किया और युग (विक्रम संवत) की स्थापना की। हर दिन वह सभी 4 जातियों को मोती, सोना, रत्न, गाय, हाथी और घोड़े का उपहार देता था और इसलिए उसे 'सुवर्णन' कहा जाता था।

(22-16) में – विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैयिनी कहती है कि भगवान महाकालेश्वर की उपस्थिति के कारण वहाँ के निवासियों को मोक्ष प्रदान करती है।

(22-17) यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे। आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥

यह श्लोक स्पष्टतः यह बता रहा है कि रुमदेशधिपति रोम देश के स्वामी शकराज (विदेशी राजाओं को तत्कालीन भाषा में शक ही कहते थे, क्योंकि उस काल में शकों के आक्रमण से भारत त्रस्त था) को पराजित कर विक्रमादित्य ने बंदी बना लिया था और उसे उज्जैनी नगर में घुमा कर छोड़ दिया था।

श्री कृष्ण मिश्रा ने अपनी पुस्तक ज्योतिषफल-रत्नमाला, ज्योतिष पर एक पुस्तक (14 ईस्वी) में अपने राजा को इस प्रकार श्रद्धांजलि दी है - "वह विक्रमार्क, सम्राट, मानुस की तरह प्रसिद्ध, जिसने सत्तर वर्षों तक मेरी और मेरे संबंधों की रक्षा की, मुझे एक करोड़ सोने के सिक्के दिए हैं जो सफलता और समृद्धि के साथ हमेशा के लिए फलते-फूलते हैं। (ज्योतिषफल रत्नमाला का श्लोक 10)

कश्मीर का इतिहास - जब कश्मीर के राजाओं की सूची में 82वें राजा, हिरण्य की मृत्यु बिना किसी उत्तराधिकारी को छोड़े हुई थी, तो कश्मीर में मंत्रियों के मंत्रिमंडल ने अपने अधिपति महाराजा विक्रमादित्य को एक संदेश भेजा, और उनसे प्रतिनियुक्ति करने का अनुरोध किया। एक शासक। फिर, दरबार के एक विद्वान-कवि, मातृगुप्त के प्रति अपने पक्ष में, महाराजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को 14 सीई में अपने जागीरदार राज्य, कश्मीर की संप्रभुता के साथ स्थापित किया। [ कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी तीसरी तरंग ]

महाराजा सम्राट #विक्रमादित्य के नौ रत्न 

सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों के विषय में बहुत कुछ पढ़ा-देखा जाता है। लेकिन बहुत ही कम लोग ये जानते हैं कि आखिर ये नवरत्न थे कौन-कौन।

महाराजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। चलिए जानते हैं कौन थे।

ये हैं नवरत्न –

1–#धन्वन्तरि-
नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है।

2–#क्षपणक-

जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे। इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे। इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और 'नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।

3–#अमरसिंह-

ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।

4–#शंकु –

इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है।

5–#वेतालभट्ट –

विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।

6–#घटखर्पर –

जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया।

इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।
इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।

7–#कालिदास –

ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया।

जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।

8–#वराहमिहिर –

भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।

9–#वररुचि-

कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं। इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-

1.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
2.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि
3.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि।

विक्रम टिल्ले को जाने का मार्ग 

विक्रम टिल्ले का मुख्य द्वार 

रूद्र सागर 

इस ऊपर वाले फोटो में रूद्र सागर दिख रहा हैं. उस समय ये गन्दगी और समुन्द्र सोख से पटा पड़ा था. पर मोदी जी की मेहरबानी से अब ये बिलकुल साफ़ और सुन्दर हैं. दूर दाई और बालाजी परिसर जंहा में रुका था. व उसके बराबर में बाई और प्रजापति धर्मशाला हैं.

विक्रम टिल्ले से दिखता पवित्र महाकाल मंदिर 

विक्रम टिल्ले का सुन्दर मार्ग 

विक्रम टिल्ले में स्थित मंदिर 

सिंघासन बत्तीसी की कठपुतलिया 

विक्रम टिल्ले में स्थित स्थापत्य कला 

कठपुतलिया 


विक्रम टिल्ले से एक दृश्य 

एक और दृश्य 

सम्राट विक्रम 



एक और कलाकृति 







ये कठपुतलिया बिलकुल जागृत हैं आदमकद हैं और ऐसा लगता है की बिलकुल जीती जागती हैं. गज़ब की कलाकारी हैं.

इस स्थान के बारे में बताता शिला पट 

मंदिर के अन्दर का दृश्य 




सम्राट विक्रम भारत के सबसे महान सम्राटो में से एक थे. इनका साम्राज्य उस समय समस्त एशिया में फैला हुआ था. अपने समय में इन्होने अरब देशो में भगवान् शिव के मंदिरों की स्थापना की थी 



सम्राट विक्रम के नवरत्नों की प्रतिमाये 

सम्राट विक्रम के नवरत्नों की प्रतिमाये 

स्थापित शिलापट 













शाम के समय का चित्र 


शाम के समय का चित्र 



ये ऊपर के फोटो मैंने शाम के समय लिए थे. इस लिए इन पर अलग तरह की आभा हैं. जब भी में उजैन में महाकाल मंदिर के आसपास कही जाता था, तो ये स्थान बीच में पड़ता था. और इस स्थान पर में बार बार गया. 

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Saturday, May 27, 2023

UJJAIN A HOLY TRAVELL - 2 - MAHAKAL DARSHAN

#UJJAIN A HOLY TRAVELL - 2 - MAHAKAL DARSHAN

 इससे पहले का यात्रा वृत्तान्त पढने के लिए क्लिक करे..(#UJJAIN A HOLY TRAVELL - MUZAFFARNAGAR TO UJJAIN - 1)

२४/१०/२१ 

उज्जैन हम हिन्दुओ के सबसे बड़े तीर्थो में शामिल हैं. जो महत्ता यंहा की हैं वह कही की नहीं. यंहा पर ज्योतिर्लिंग महाकाल, आदि शक्तिपीठ माता हरसिद्धि, काल भैरव, संदीपनी आश्रम, कुम्भ का मेला, मंगल नाथ, पवित्र शिप्रा नदी, विश्व के और भारत के केंद्र में, जंतर मंतर,   शिव जी के त्रिशूल पर टिके होने के कारण खगोल शास्त्रियों और ज्योतिषियों के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान हैं मुझे तो लगता है की सम्पूर्ण भारत में इससे ज्यादा धार्मिक महत्त्व का कोई स्थान हैं. 

मैं उज्जैन  बालाजी  परिसर में सुबह सुबह ही पहुँच गया था. आज था दिनांक २४/१०/२१. फिर चाय वाय पीकर नहाकर तैयार हो गया. बाहर चाय वाले ने बताया की इस समय दर्शन के लिए चले जाओ भीड़ कम मिलेगी. बालाजी परिसर से मंदिर की दूरी करीब आधा किलोमीटर थी. रूद्र सागर पर बने हुए पुल कम सड़क  जिस पर दोनों और प्रसाद आदि बेचने के दुकाने थी. उस को पार करके दस मिनट में मै मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुँच गया. प्रसाद आदि लिया, प्रसाद में कुछ मीठा, इलायची दाना व भांग धतूरा आदि चढ़ता हैं. कैमरा आदि की एंट्री नहीं थी. अच्छा हुआ मै कैमरा लेकर नहीं गया मंदिर में. पर उन दिनों मोबाइल ले जा सकते थे. कम से कम मंदिर के अन्दर तो फोटो लेने को मिलेगे. इन दिनों  सुरक्षा कारणों से मोबाइल भी बंद कर दिया हैं. जब से नया महाकाल लोक बना हैं. भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं. उन दिनों महाकाल लोक नहीं था. दर्शन भी आराम से होते थे.  अब कभी महाकाल लोक देखने के लिए दोबारा जल्दी जाउंगा. खैर दर्शन करने के लिए पंक्ति में लग गया, पंक्ति तेजी से आगे बढती जा रही थी. मैं दस पंद्रह मिनट में मंदिर के अन्दर महाकाल के पास पहुँच गया.   अब कुछ बाबा महाकाल के बारे में....

#बाबा महाकाल 

महाकालेश्वर मंदिर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का प्रमुख मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है। इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसी मान्यता है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा की है।  १२३५ ई. में इल्तुत्मिश के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंस किए जाने के बाद से यहां जो भी शासक रहे, उन्होंने इस मंदिर के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया, इसीलिए मंदिर अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। प्रतिवर्ष और सिंहस्थ के पूर्व इस मंदिर को सुसज्जित किया जाता है।

इतिहास

इतिहास से पता चलता है कि उज्जैन में सन् ११०७ से १७२८ ई. तक यवनों का शासन था। इनके शासनकाल में अवंति की लगभग ४५०० वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। लेकिन १६९० ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और २९ नवंबर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन १७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। मराठों के शासनकाल में यहाँ दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं - पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया।

वर्णन

मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर है। महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। मंदिर से लगा एक छोटा-सा जलस्रोत है जिसे कोटितीर्थ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिकवा दिया था। बाद में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करायी गयी। सन १९६८ के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व मुख्य द्वार का विस्तार कर सुसज्जित कर लिया गया था। इसके अलावा निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण भी कराया गया था। लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को दृष्टिगत रखते हुए बिड़ला उद्योग समूह के द्वारा १९८० के सिंहस्थ के पूर्व एक विशाल सभा मंडप का निर्माण कराया। महाकालेश्वर मंदिर की व्यवस्था के लिए एक प्रशासनिक समिति का गठन किया गया है जिसके निर्देशन में यहाँ की व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही है। हाल ही में इसके ११८ शिखरों पर १६ किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई है। अब मंदिर में दान के लिए इंटरनेट सुविधा भी चालू की गई है।

#MAHAKAL BABA 

#MAHAKAL MANDIR 

मंदिर में प्रवेश द्वार 

लो जी मंदिर के परसर में आ गए 

अन्दर जाने लिए बेरिकेड 

भोलेनाथ की तस्वीर 



मंदिर परिसर में हनुमान जी का मंदिर 

सबसे पहले हनुमान जी के दर्शन होते हैं. हनुमान जी को प्रणाम करके हम लोग आगे बढे..

जय बाबा महाकाल 

लो जी मुख्य मंदिर के पास आ गए. यंहा पर एक खास बात हैं, मंदिर के अन्दर प्रवेश करके महाकाल के दर्शन दूर से होने लगते हैं प्रवेश करके  बालकोनी टाइप का स्थान आता हैं. दूर से बाबा के और नंदी जी के दर्शन हो जाते हैं. इसके बाद आगे बढ़ जाते है. आगे जाकर के पास से बाबा के दर्शन होते हैं और प्रसाद मिलता हैं. पंडो की लूट और मारामारी भी नहीं हैं यंहा पर.

महाकाल और नंदी मंडप 






अपन राम बाबा के दर्शन के बाद 

मंदिर परिसर  के अन्दर 

विशाल विराट बाबा का मंदिर 

विशाल विराट बाबा का मंदिर 

मंदिर में मै

महाकाल मंदिर परिसर में और भी बहुत सरे मंदिर बने हुए हैं जिसमे अधिकतर बागवान शिव के मंदिर हैं. महाकाल के दर्शन के बाद उन मंदिरों का भी दर्शन किया उनके चित्र नीचे दिए हैं. महाकाल मंदिर में लड्डू का प्रसाद मिलता हैं जिसके लिए कुच्ज पे करना पड़ता हैं. लाइन में लगकर लड्डू का प्रसाद भी लिया..

मंदिर परिसर में एक और मंदिर 









श्री अनादी कल्पेश्वर महादेव 

एक और मंदिर 



श्री वृद्ध कालेश्वर मंदिर 

नंदी  जी 









हनुमान जी 



महाकाल मंदिर 

लो जी पालथी मारकर बैठ गए 





मंदिर का मुख्य प्रवेशद्वार 





मंदिर में अन्दर जाने का रास्ता 

मंदिर में अन्दर जाने का और बाहर आने का मुख्य द्वार 

बाबा के दर्शन करके मन को बहुत तृप्ति हुई. और भी बहुत सारे मंदिर है सब के दर्शन करे. मंदिर में २ घंटे बिताने के बाद मैं बाहर आ गया. आज और भी मंदिरों के दर्शन करने थे. उज्जैन घूमना था..

इससे आगे का यत्रा वृत्तान्त पढने के लिए क्लिक करे..