Sunday, July 12, 2020

एक दिन की दून घाटी की सैर -२

एक दिन की दून घाटी की सैर -२ 

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हम लोग चन्द्रबनी मंदिर से टपकेश्वर महादेव मंदिर की और चल दिए. जनरल महादेव  सिंह मार्ग होते हुए हम लोग टपकेश्वर महादेव मंदिर पहुँच गए. मंदिर में कोई ज्यादा भीड़ भाड़ नहीं थी. मंदिर के बराबर से टोंस नदी  अपने पुरे जोर शोर से बह रही थी. 

मंदिर का मुख्य द्वार 

यह मंदिर देहरादून जिला देहरादून सिटी बस स्टेंड से 5.5 कि॰मी॰ की दूरी पर गढ़ी कैंट क्षेत्र में एक छोटी नदी के किनारे बना है। सड़क मार्ग द्वारा यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहाँ एक गुफा में स्थित शिवलिंग पर एक चट्टान से पानी की बूंदे टपकती रहती हैं। इसी कारण इसका नाम टपकेश्वर पड़ा है। शिवरात्रि के पर्व पर आयोजित मेले में लोग बड़ी संख्या में यहां एकत्र होते हैं और यहां स्थित शिव मूर्ति पर श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।


देहरादून में पहाड़ की गोद में विराजमान भगवान टपकेश्वर स्वयंभू शिवलिंग मंदिर की प्राकृतिक छटा निराली है। जहां पहाड़ी गुफा में स्थित यह स्वयंभू शिवलिंग भगवान की महिमा का आभास कराती है तो वहीं मंदिर के पास से गुजरती टोंस नदी की कलकल बहतीं धाराएं श्रद्धालुओं को द्रोण और अश्वत्थामा के तप और भक्ति की गाथा सुनाती है।

महर्षि द्रोण और अश्वत्थामा की तपस्या और शिव की पाठशाला की गवाह रही यह नदी भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस मंदिर की चरचा महाभारत में भी है। इस शिवलिंग की सबसे रोचक बात यह है कि द्वापर युग में शिवलिंग पर दूध की धाराएं गिरती थी।

दूध प्राप्ति का आशीर्वाद दिया
कहते हैं कि दूध से वंचित गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा ने भगवान भोलेनाथ की छह माह तक कठोर तपस्या की। अश्वत्थामा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दूध प्राप्ति का आशीर्वाद दिया और पहली बार अश्वत्थामा ने इसी मंदिर में दूध का स्वाद चखा था। टपकेश्वर को दूधेश्वर भी कहा जाता है।

द्रोणनगरी में स्थित टपकेश्वर स्वयंभू शिवलिंग महर्षि द्रोणाचार्य की सिर्फ तपस्थली नहीं रही, बल्कि यहीं पर गुरु द्रोण ने भगवान शिव से शिक्षा भी ग्रहण की थी। द्वापर युग में टपकेश्वर को तपेश्वर और दूधेश्वर के नाम से भी जाना जाता था।

भोले की उपासना करने की सलाह
कहा जाता है कि पहाड़ी गुफा में स्थित शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया बल्कि स्वयं प्रकट हुआ है। इसलिए इसे स्वयंभू कहा जाता है। यहां देव से लेकर गंधर्व तक भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। पास ही कलकल बहती टोंस नदी जो द्वापर युग में तमसा नदी के नाम से प्रसिद्ध था, में जल क्रीडा करते थे।

कहा जाता है कि जब महर्षि द्रोण हिमालय की ओर तपस्या करने के लिए निकले तो ऋषिकेश में एक ऋषि ने उन्हें तपेश्वर में भगवान भोले की उपासना करने की सलाह दी। गुरु द्रोण अपनी पत्नी कृपि केसाथ तपेश्वर आ गए। गुरु द्रोण जहां शिव से शिक्षा लेने केलिए तपस्या करते थे, वहीं उनकी पत्नी कृपि पुत्र रत्न की प्राप्ति केलिए जप करती थीं।

शिव की महिमा पसंद नहीं आई
भगवान शिव प्रसन्न हुए और कृपि को अश्वत्थामा जैसा पुत्र प्राप्त हुआ, वहीं द्रोण को शिक्षा देने केलिए भगवान रोज आने लगे। मां कृपि को दूध नहीं होता था, इसलिए वो अश्वत्थामा को पानी पिलाती थीं। मां के दूध से वंचित अश्वत्थामा को मालूम ही नहीं था कि श्वेत रंग का यह तरल पदार्थ क्या है। अपने अन्य बाल सखाओं को दूध पीते देखकर अश्वत्थामा भी अपनी मां से दूध की मांग करते थे।

दिन प्रतिदिन अश्वत्थामा के बढ़ते हठ के कारण महर्षि द्रोण भी चिंतित रहने लगे। एक दिन महर्षि द्रोण अपने गुरु भाई पांचाल नरेश राजा द्रुपद के पास गए। राजा दु्रपद धन वैभव के मद में चूर थे। गुरु द्रोण के आगमन पर प्रसन्न तो हुए। लेकिन उन्हें द्रोण के मुख से भगवान शिव की महिमा पसंद नहीं आई।

गुरु द्रोण ने उनसे अपने पुत्र के लिए एक गाय की मांग की। राजसी घमंड में चूर पांचाल नरेश द्रुपद ने कहा कि अपने शिव से गाय मांगों, मेरे पास तुम्हारे लिए गाय नहीं है। यह बात महर्षि द्रोण को चुभ गई। वो वापस लौटे और बालक अश्वत्थामा को दूध केलिए शिव की आराधना करने को कहा। अश्वत्थामा ने छह माह तक शिवलिंग के सामने बैठकर भगवान की कठोर आराधना शुरू कर दी तभी एक दिन अचानक श्वेत तरल पदार्थ की धारा शिवलिंग के ऊपर गिरने लगी।

सब भगवान शिव की महिमा
यह देखकर अश्वत्थामा ने अपने माता पिता को इस आश्चर्य के बारे में बताया। महर्षि द्रोण ने जब देखा तो समझ गए कि यह सब भगवान शिव की महिमा है। फिर एक दिन भगवान भोलेनाथ उन्हें दर्शन देकर बोले की अब अश्वत्थामा को दूध के लिए व्याकुल नहीं होना पड़ेगा। उसी धारा से अश्वत्थामा ने पहली बार दूध का स्वाद चखा। उस समय जो भी भक्त भोले के दर्शन करने तपेश्वर आता था, वो प्रसाद के रूप में दूध प्राप्त करता था।

कहते हैं यह सिलसिला कलयुग तक चलता रहा। पर बाद में भोले के इस प्रसाद का अनादर होने लगा। यह देखकर शिवशंकर ने दूध को पानी में तब्दील कर दिया, और धीर धीरे यह पानी बूंद बनकर शिवलिंग पर टपकने लगा। आज तक यह ज्ञात नहीं हुआ कि यह पानी कहां से शिवलिंग के ऊपर टपकता है। पानी टपकने केकारण कलयुग में यह मंदिर भगवान टपकेश्वर केनाम से प्रसिद्ध हो गया।

हालांकि अब इस स्वयंभू शिवलिंग के चारों ओर कई मंदिर बन गए हैं। जिसमें वैष्णव माता का मंदिर भी शामिल है। यहां आज भी वही शांति और भक्ति की अनुभूति होती है, जो कथाओं में सुनने को मिलती है। ऐसी आस्था है कि  आज भी देश और गंधर्व यहा भगवान भोले के दर्शन को आते हैं। यहां शाम को प्रतिदिन भगवान शिव का श्रृंगार किया जाता है। टपकेश्वर जाने के लिए सबसे नजदीक बस अड्डा और रेलवे स्टेशन देहरादून है।

श्रद्धा और भक्ति
-प्रत्येक सोमवार को भोलेनाथ का विशेष श्रृंगार।
-महाशिवरात्रि केदिन यहां भव्य पूजा होती है।
-पूरे सावन यहां पूजा होती है और भारी भीड़ रहती है।
-नवरात्र में भी यहां पूजा केसाथ भव्य सजावट होती है।
-यहां पर ही स्थित कलिका मंदिर भी प्रसिद्ध है।
-कलकल बहती टोंस नदी भी लोगों को आकर्षित करती है।
(लेख साभार: अमरउजाला)

मंदिर का भव्य दृश्य 

मंदिर के इतिहास के बारे में लगा हुआ शिला लेख 

टौंस नदी के किनारे हनुमान जी की मूर्ति 






अंगद का पैर 
माता वैष्णोदेवी गुफा का द्वार 

टौंस नदी का मनमोहक दृश्य 
सुन्दर अति सुन्दर 


हनुमान जी का विराट रूप 



शीतल जल का आनंद 
टपकेश्वर महादेव मंदिर से हम गुच्छु पानी यानी ROVERS CAVE पहुँच गए. गुफा काफी लम्बी हैं इसमें लगातार एक दो फीट पानी बहता रहता है. हम इसमें काफी अन्दर तक चले गए थे. कहते हैं इसमें चोर डाकू आकर के छिपते थे. इसलिए इसे रोवर्स केव बोलते हैं. पर अब ये एक पिकनिक स्पॉट हैं. और नाश्ते और खाने पीने के लिए कई स्पॉट हैं. 
गुच्छुपानी :
पिकनिक के लिए एक आदर्श स्थान रॉबर्स केव सिटी बस स्टेंड से गढ़वा केंट होते हुए अनारवाला में स्थित केवल 8 कि॰मी॰ पर स्थित है। हरिद्वार-ऋषिकेश मार्ग पर लच्छीवाला-डोईवाला से 3 कि॰मी॰ और देहरादून से 22 कि॰मी॰ दूर है। सुंदर दृश्यावली वाला यह स्थान पिकनिक-स्पॉट है। यहाँ हरे-भरे स्थान पर फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में पर्यटकों के लिए ठहरने की व्यवस्था है। बसें अनारवाला गांव तक जाती है जहाँ से यहाँ पहुँचने के लिए एक किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। कई सारी विशेषताओं में से एक जो इसे अत्यंत लोकप्रिय जगह बनाती है, वह है धरती के नीचे से पानी की धारा का बहना और फिर कुछ मीटर की दूरी पर उसका प्रकट हो जाना। यह गुफा भी चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरी है और यह आत्मिक और मानसिक शांति की तलाश में जुटे व्यक्ति के लिए यह एक बेहतरीन अवसर उपलब्ध कराता है।(साभार: विकिपीडिआ)

गुफा का प्रवेशद्वार 
गुफा में प्रवेश 

गुफा में अन्धेरा 


गुच्छु पानी पर कुछ समय बिता कर हमलोग  मसूरी रोड पर प्रकाशेश्वर महादेव मंदिर की और चल पड़े. इस मंदिर में हमेशा भंडारा, चाय व खिचड़ी आदि का चलता रहता हैं. इस मंदिर में रूपये पैसे चढ़ाना बिलकुल मना हैं. हम लोगो ने भंडारी में प्रसाद चखा और महादेव के दर्शन किये. 

देहरादून-मसूरी रोड पर घंटाघर से करीब 12 किमी दूर कुठाल गेट के पास हरी-भरी पहाड़ियों के बीच सड़क के किनारे स्थित है प्रकाशेश्वर महादेव मंदिर। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर देहरादून के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह देश के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जो किसी भी प्रकार के दान को स्वीकार नहीं करते। यहां तक कि गुमनाम दान भी यहां स्वीकार्य नहीं है। श्रद्धालुओं को मंदिर के चित्र लेने की भी सख्त मनाही है। हालांकि, कोई भी मंदिर में दर्शन कर सकता है और प्रसाद के रूप में मंदिर की रसोई में परोसी जाने वाली चाय ले सकता है। मंदिर के मुख्य द्वार पर एक शिलापट लगा है, जिसमें बांग्ला भाषा में एक फरमान अंकित है। इसमें किसी भी तरह के चढ़ावे की मनाही का निर्देश दिया गया है।(साभार: दैनिक जागरण )

प्रकाशेश्वर महादेव मंदिर 


स्फटिक शिवलिंग मुख्य आकर्षण
इस मंदिर का मुख्य आकर्षण हैं यहां स्थापित शिवलिंग, जो दुर्लभ पत्थरों और स्फटिक के बने हुए हैं। स्फटिक एक प्रकार का बर्फ का पत्थर है, जो लाखों वर्ष बर्फ में दबे होने से बनता है। यह दिखने पारदर्शी और कठोर होता है।
दिनभर मिलता चाय और खीर का प्रसाद
मंदिर में मिठाई या प्रसाद की कोई भी दुकान नहीं है। इसलिए श्रद्धालु सिर्फ शिवलिंग पर जल ही चढ़ा सकते हैं। हां, मंदिर में आपको मुफ्त में स्वादिष्ट चाय और हर दिन लगने वाले लंगर (भंडारा) में हलुवा, खीर, चना और पूड़ी का प्रसाद जरूर मिल जाएगा। इसके अलावा मंदिर में श्रद्धालु मुफ्त गंगाजल भी प्राप्त कर सकते हैं। विशेष यह कि जिस कप में आप चाय पीते हो, उसे आपको धोना भी पड़ेगा।(साभार: दैनिक जागरण )

सुंदरता निखारते हैं मंदिर के ऊपर बने 150 त्रिशूल
प्रकाशेश्वर शिव मंदिर अपनी अनूठी वास्तुकला के लिए जाना जाता है। मंदिर के ऊपर लगभग 150 त्रिशूल बने हुए हैं। जो मंदिर की सुंदरता में चार चांद लगा देते है। जबकि, दीवारों को लाल और नारंगी रंग से चित्रित किया गया है। बीच में काले रंग का एक झूला भी है। मंदिर में लगे शिलापट पर अंकित जानकारी के मुताबिक यह एक निजी प्रॉपर्टी है। इसका निर्माण शिवरत्न केंद्र हरिद्वार की ओर से वर्ष 1990-91 के दौरान कराया गया। मंदिर के निर्माता योगीराज मूलचंद खत्री का परिवार है।
महाशिवरात्रि और सावन में उमड़ता है आस्था का सैलाब
मंदिर को रोजाना फूलों से सजाया जाता है। महाशिवरात्रि और सावन के महीने में यहां विशेष पूजाएं आयोजित की जाती हैं। शांत एवं सुरम्य वादियों में स्थित इस मंदिर के पास से दूनघाटी का सुंदर नजारा दिखाई देता है। हालांकि, मंदिर के मुख्य सड़क पर स्थित होने के कारण पार्किंग के लिए यहां सीमित जगह उपलब्ध है। फिर भी मसूरी जाने वाले ज्यादातर लोग यहां अवश्य रुकते हैं।(साभार: दैनिक जागरण )


महादेव मंदिर से हम राजपुर रोड स्थित साईं बाबा मंदिर आ गए. और उनके दर्शन किये. कुछ देर वंहा विश्राम किया व लंगर चखा. 

राजपुर रोड पर शहर से 8 कि॰मी॰ की दूरी पर घंटाघर के समीप साई दरबार मंदिर है। इसका बहुत अधिक सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है तथा देश-विदेश से दर्शनार्थी यहाँ आते हैं। साई दरबार के समीप राजपुर रोड पर ही भगवान बुद्ध का बहुत विशाल और भव्य तिब्बती मंदिर है।

जय साईं राम 

साईं मंदिर देहरादून में हमारा अंतिम दर्शनीय स्थल था. कुछ मौसम भी खराब होने लगा था. बहुत तेज़ बारिश होने लगी थी. बारिश रुकने के बाद हम लोग हरिद्वार की और निकल गए. 

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